Saturday 12 May, 2012

भंवरी... स्त्री है, दलित है, इसलिए ब्लैकमेलर है, खलनायिका है...



जनतंत्र का जामा ओढ़े इस आजाद कहे जाने वाले देश के कुछ "पंच परमेश्वरों" ने करीब सत्रह साल पहले एक भंवरी का जो हश्र किया था, वह शायद तमाम भंवरियों की उस "नियति" का बयान था, जो मनुओं ने बड़े जतन से तय किया और आज भी उसे सहेज कर रखा है। सामूहिक बलात्कार की पीड़ा के साथ मर-जी रही एक स्त्री को "झूठी" घोषित करते हुए मनु-भक्तों ने जब कहा होगा कि "ऊंची जाति के लोग किसी नीच जाति वाले को छू नहीं सकते तो भंवरी का बलात्कार कैसे कर सकते हैं" तो क्या ठीक वही वक्त नहीं रहा होगा, जब उन "पंच-परमेश्वरों" के मुंह पर थूक दिया जाना चाहिए था? क्या भंवरी का कसूर यह था कि एक साथिन के तौर पर वह समाज को जागरूक करने के मकसद से घर की दहलीज के बाहर निकल पड़ी थी, और इससे भी ज्यादा वह देश के कानूनों के साथ बाल-विवाह की मुखालफत कर रही थी? इंसानियत, किसी सभ्य समाज के तकाजे और देश के कानून की किताब चाहे जो कहें, यह न केवल समाज के ठेकेदारों के नंगा नाचने के लिए काफी था, बल्कि न्याय की मूर्ति कहे जाने वालों ने भी भारत के संविधान और कानून की जगह अपने सड़े हुए दिमाग में अपने पता नहीं किसकी "स्मृति" घुसेड़ रखी थी।

और आज जब फिर एक मार डाली गई भंवरी को दूसरे पैमानों से उसी स्मृति की कसौटी पर पेश किया जा रहा है, तो लगता है कि भंवरी की सामाजिक हैसियत में मरने-जीने वाले तमाम तबकों के पास इस समूची व्यवस्था को खारिज करने के सिवाय कोई दूसरा विकल्प नहीं है। लगभग दो दशक पहले सामंतों की शिकार भंवरी बाई पर झूठी होने का आरोप लगाने वाले मनुपुत्रों को न तब शर्म आई थी, न आज के समाज के "आधुनिक" कहे जाने वाले व्यवस्था के झंडाबरदारों को यह कहते हुए शर्म आती है कि भंवरी देवी ब्लैकमेलर थी, भंवरी देवी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की शिकार हुई।

हां, वह महत्त्वाकांक्षी थी...

हां, भंवरी देवी महत्त्वाकांक्षी थी, क्योंकि जिस खानाबदोश नट जाति में वह पैदा हुई थी, उसकी पुश्तैनी संस्कृति को निबाहने के बजाय उसने स्कूल जाना पसंद किया था; क्योंकि जिस राजस्थान में अनुसूचित जातियों के बीच साक्षरता कुल आठ फीसद है और खासतौर पर नट जाति में सिर्फ नाम के लिए, और उनमें भी अठासी फीसद बच्चे बीच में ही स्कूल छोड़ देते हैं, भंवरी देवी ने पहले हाई स्कूल की परीक्षा पास की, फिर एएनएम के लिए मानक जांच परीक्षा में अपनी योग्यता साबित की; क्योंकि जोधपुर की कुल 617 में से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महज 47 एएनएम में दर-दर भटकने के लिए जानी जाने वाली नट जाति की भंवरी शायद अकेली थी; और क्योंकि उसने अपनी तनख्वाह का इस्तेमाल अपने बच्चों को स्कूल भेजने में करना ज्यादा जरूरी समझा था। इसके अलावा, इस तथाकथित समाज के हाशिये के बाहर जीने वाली नट समुदाय में पैदा होने के बावजूद उसने गीत-संगीत के क्षेत्र में दखल दिया; उसमें सृजन का जज्बा था और उसने अपनी रचनात्मकता साबित की थी; उसने संगीत के कई अल्बम में काम किया था।

और अपनी इन्हीं "महत्त्वाकांक्षाओं" को जिंदा रखने के लिए वह अपने इलाके के विधायक मलखान सिंह से मिली थी। वजह सिर्फ यह थी कि बतौर एएनएम उसका तबादला उसके घर से बहुत दूर कर दिया गया था और वह उसे रुकवाना चाहती थी। इस तरह या दूसरी जरूरतों के लिए लोगों का अपने क्षेत्र के जन-प्रतिनिधियों से अनुरोध करना एक आम रिवायत है। लेकिन वह कौन-सी सामाजिक-राजनीतिक नैतिकता या कानूनी नियम-कायदे किसी जन-प्रतिनिधि को यह छूट देती है कि वह फरियादी महिला के लिए सिफारिश करने के बदले उसे "यौन-सहयोग" के लिए मजबूर करे?

कुछ समय पहले बिहार में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद लगभग पैंतीस हजार प्रशिक्षित शिक्षकों को बहाली दी गई। इस बहाली में बड़ी तादाद में वैसी महिलाएं हैं जिन्हें अपने आवास तो दूर, बल्कि अपने गृह-जिले से भी दो या ढाई सौ किलोमीटर दूर के स्कूल में पदस्थापित किया गया। अव्वल तो महिलाओं को इतनी दूर नियुक्ति देने का फैसला कितना सही है, दूसरे ऐसी कितनी महिलाएं होंगी, जिन्हें इस तरह के पदस्थापन से शिकायत नहीं होगी। क्या हमने अपने समाज और परिवेश को ऐसा सहज और सुरक्षित स्वरूप दे दिया है कि ऐसी स्थिति में किसी महिला के दिमाग में "इतनी दूर" जाने को लेकर कोई परेशानी नहीं पैदा हो? और तीसरे कि ऐसे फैसलों के पीछे शोषण और घूसखोरी की कौन-सी पटकथा तैयार की जाती है, क्या यह किसी से छिपा है?

तो भंवरी देवी भी अपने घर से दूर कर दिए गए तबादले को रुकवाने के लिए महज प्रार्थना करने गई थी और मलखान सिंह एक सत्ता केंद्र था जो भंवरी का यह काम करा दे सकता था। क्या यह संभव नहीं है कि अपने काम के लिए बार-बार दौड़ती भंवरी थक कर मलखान के जाल फंस गई हो? अगर नहीं तो मलखान सिंह ने भंवरी को मदेरणा से किस मकसद से मिलवाया? मंत्रियों और विधायकों के लिए ऐसा कौन-सा विशेष नियम है जो उन्हें "एक वयस्क की सहमति" के नाम पर महिलाओं का यौन-शोषण करने की आजादी देता है? क्या अब इस बात की भी जांच किए जाने की जरूरत है कि तथाकथित जन-प्रतिनिधियों की काल-कोठरी में कितनी भंवरी देवियां दफन हो गई होंगी?

सहमति का जाल...

इतना तय है कि "तकनीकी तौर पर" दो वयस्कों के बीच "आपसी सहमति" पर आधारित संबंधों का मामला होने की वजह से भंवरी के साथ जो हुआ, व्यवस्था उसे बलात्कार नहीं कहेगी। लेकिन यहां अजीब कानून है जहां शादी का झांसा देकर हासिल की गई यौन-संबंधों की सहमति को बलात्कार माना जा सकता है, लेकिन अगर कोई अपने पद या हैसियत का इस्तेमाल कर किसी महिला को अपने जाल में फंसाता है और उसे "सहमतिजन्य संबंध" का नाम देता है तो वह कहीं से भी बलात्कारी नहीं है!

अस्सी के दशक में बलात्कार कानूनों में सुधार के मसले पर हुई बहस में यह सवाल उठा था कि अगर कोई पुरुष अपने ऊंचे पद या हैसियत का दुरुपयोग कर अपनी किसी महिला कर्मचारी पर यौन-संबंध बनाता है तो उसे भी बलात्कार माना जाए। लेकिन आज जब राजनीतिक हलकों से लेकर नौकरी या कार्यस्थलों पर महिलाओं के यौन-शोषण के लिए "सहमतिजन्य संबंध" के दलील की आड़ में ऐसे मामले आम होते जा रहे हैं तो समझा जा सकता है कि तब वह प्रस्ताव खारिज करने के पीछे व्यवस्थावादियों की क्या मंशा रही होगी।

समरथ को नहि दोष गुसाईं...

इस लिहाज से देखें तो भंवरी देवी के साथ जो हुआ, वह भारतीय राजनीति में घुसी पुरुष नीचताओं और आपराधिक जालसाजियों का एक प्रतिनिधि मामला है। इसमें सत्ता और शक्ति के इस्तेमाल से दबाव बना कर सेक्स हासिल करना है, हत्यारों के गिरोह के साथ चुने गए जनप्रतिधियों और सरकार के ऊंचे ओहदे पर बैठे मंत्रियों का गठजोड़ है, ताकतवर जातियों द्वारा एक कमजोर जाति की महिला का शोषण है, और यह सब करते हुए भी तथाकथित जनप्रतिनिधियों का जनता के बीच इतना लोकप्रिय बने रहना है। ध्यान रखने की बात है कि महिपाल सिंह मदेरणा और मलखान सिंह को सही ठहराते हुए न सिर्फ इनके परिवार वाले, बल्कि बड़ी तादाद में इनके समाज के लोगों ने भी जुलूस निकाल कर मदेरणा और मलखान का पक्ष लिया।

1995 जब इस देश के न्याय के मंदिर कहे जाने वाली एक अदालत ने जब भंवरी बाई के बलात्कारियों को रिहा किया था तो एक तत्कालीन भाजपा विधायक ने जयपुर में विजय जुलूस निकाला था और भाजपा की ही महिला संगठन ने भी उस रैली में हिस्सा लिया और भंवरी बाई को "झूठी" बताया। इस बार जब कानून ने भंवरी के हत्यारों को यों ही बख्श देने की इजाजत नहीं दी तो मदेरणा और मलखान को गिरफ्तार किया गया। इसके बाद मदेरणा और मलखान के समाज के लोगों ने जिस तरह हजारों की तादाद में अपने "पवित्र" नेताओं के समर्थन में जुलूस निकाल कर उन्हें निर्दोष घोषित करने की मांग की, उससे इस देश की त्रासदी का अंदाजा लगाया जा सकता है।

ब्लैकमेलर भंवरी की अकूत जायदाद...

जब भंवरी और मदेरणा की सीडी का किस्सा सामने आया तो न सिर्फ भंवरी की हत्या के आरोपियों और उसके परिवार-समाज के लोगों, बल्कि सीबीआई तक ने भंवरी को "ब्लैकमेलर" कहा। सीबीआई के निदेशक ने इस मामले में हॉलीवुड की एक फिल्म "सेक्स लाइज एंड वीडियोटेप" का उदाहरण पेश किया और इसी आधार पर मीडिया और उसे "देव-वचन" मानने वालों ने इसे "ब्लैकमेल, राजनीतिक, सेक्स और सीडी" का सबूत मान लिया। कहा गया कि सेक्स सीडी खुद भंवरी ने बनवाई और उसे सार्वजनिक करने की धमकी देकर उसने इसमें शामिल लोगों से अकूत धन वसूला।

यानी राजनेताओं के पद, हैसियत, शक्ति और इसके बूते अपने ऐय्याशी के लिए जाल में फांस कर और उसके भरपूर शोषण करने के बाद मार डालने वाले तो "बेचारे", "मासूम" और "नायक" ही रहे, लेकिन जब भंवरी ने अपनी हैसियत बनाने की कोशिश की तो वह ब्लैकमेलर और खलनायिका हो गई।

अपनी सामाजिक और राजनीतिक सत्ताओं के दम पर रोज न जाने कितनी भंवरियों का शिकार करने वाले मदेरणाओं और मलखानों की महत्त्वाकांक्षा से तो देश और समाज प्रेरणा ग्रहण करता है, क्योंकि वह पुरुष है और भंवरी ने अपनी मजबूरी की जिंदगी की भरपाई एक खोखले सपने से करना चाहा, तो उसकी महत्त्वाकांक्षा मजाक और नफरत के काबिल है, क्योंकि वह स्त्री है।

खतरनाक महत्त्वाकांक्षाः प्रेरक कुकर्म

यों भी, हम जिस सामंती समाज और संस्कृति पर अपना सीना फुलाए फिरते हैं, उसमें सत्ताओं के तमाम कुकर्म भी "प्रेरक" होते हैं, और शासितों की चीखें भी दफन कर देने लायक मानी जाती हैं। इसी कसौटी पर भंवरी अव्वल तो स्त्री थी, दूसरे शासित थी और इससे भी ज्यादा एक ऐसी जाति में शुमार थी, जिसे "नीच" कहा जाता है। जाहिर है, भंवरी की महत्त्वाकांक्षा खतरनाक थी, क्योंकि वह सामाजिक सत्ताओं के पूरे भविष्य को उलट-पुलट कर दे सकती थी।

लेकिन छल के बल पर राज करने वालों के बरक्स भंवरी देवी सिर्फ उनका शिकार ही हो सकती थी, अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की लड़ाई लड़ पाना उसके बूते की बात नहीं थी। इसलिए अपनी "महत्त्वाकांक्षी" होने की लड़ाई वह हारी और अपने शिकारियों के हाथों मारी गई।

जब उसकी हत्या का मामला खुला और उसके बाद उसके बच्चों ने कानूनी लड़ाई के लिए जिस वकील को मुकदमा सौंपा, तो वह वकील इसलिए भाग गया क्योंकि भंवरी के बच्चों के पास उसे देने के लिए फीस नहीं थी। यहां यह समझना मुश्किल है कि भंवरी ने "ब्लैकमेलिंग" के जरिए जो "अकूत" धन इकट्ठा किया था, वे सारे पैसे कहां चले गए! उसकी बेटी को क्यों स्कूल से निकाल दिया गया और उसके बेटे ने किसके डर से कॉलेज जाना बंद कर दिया। साथिन भंवरी का बेटा भी जब कॉलेज जाने लायक हुआ था तो दबंगों के बाल-बच्चों ने उसकी बार-बार पिटाई कर कॉलेज जाने से रोका।

यानी भंवरी की कहानी तब भी वहीं थी और अब भी वहीं है। क्या इसकी वजह इसके सिवा कुछ और भी हो सकती है कि दोनों भंवरी स्त्री है सो है, दलित भी है?

साथिन भंवरी को कहां इस बात का अंदाजा था कि पितृसत्ता, मर्दवाद और ब्राह्मणवाद के जिन अंधे पहरुओं के बीच खड़ी होकर वह एक अंधेरे समाज में अलख जगाने की कोशिश कर रही है, उनकी सत्ता ही अंधकार की वजह से कायम है। इसलिए उन्होंने अपनी सत्ता के खिलाफ खड़ी केवल साथिन भंवरी की नहीं, बल्कि शासित स्त्री और दलित की अस्मिता और सम्मान को कुचल डाला, ताकि हजारों सालों से कायम एक बर्बर और जुल्मी व्यवस्था कायम रखा जा सके। इस फर्जी और मक्कार व्यवस्था से बेखबर साथिन भंवरी ने जब इंसाफ की गुहार लगाई तो न सिर्फ बलात्कारियों के परिवार और समाज ने उसे "झूठी औरत" कहा, बल्कि इस आजाद देश के पंच-परमेश्वरों ने जो कहा, वह अब दुनिया के इतिहास में दर्ज है। क्या कोई सामाजिक व्यवस्था इस हद तक जंगली हो सकती है, जिसमें न्याय की कुर्सी पर बैठे लोग न्याय नहीं करते, बल्कि न्याय का गला घोंटने और अपनी व्यवस्था को बचाने के लिए बेशर्मी की तमाम हदें लांघ जाते हैं?

आज भी तस्वीर में कितना फर्क आया है? खानाबदोश नट जाति की त्रासदी का सामना करती हुई भंवरी ने खुद पढ़ाई-लिखाई की, एएनएम बन गई और अपनी अगली पीढ़ी को उससे भी आगे ले जाने का सपना जमीन पर उतारने लग गई। लेकिन एक तबादला रुकवाने की कोशिश में वह कहां समझ पाई कि वह किस मर्द और सवर्ण सत्ता के जाल में फंसने जा रही है, जो उसके सामने महत्त्वाकांक्षाओं का टुकड़ा फेंक कर उसका शिकार करने के लिए घात लगाए बैठा था। भंवरी उस जाल में फंसी और आखिरकार मार डाली गई।

मर्द के बरक्स औरत...

एक अस्सी पार बूढ़े नारायण दत्त तिवारी की सेक्स सीडी बाजार में प्रसारित होती है, वह "सम्मानित" नेता बना आज भी सबसे अपनी पांव-पूजा कराता फिर रहा है, दूसरी ओर, एक सेक्स सीडी में जाल में फंसी भंवरी मार डाली जाती है और फिर भी ब्लैकमेलर और खलनायिका का दर्जा पाती है। भंवरी देवी के चरित्र की "जांच" करने के लिए बिना किसी की इजाजत के उसके बच्चों का डीएनए परीक्षण कराया जाएगा और साबित हो जाएगा कि भंवरी के एक बच्चे की वजह मलखान सिंह था। यानी कि यह पहले ही साबित हो चुका है कि भंवरी देवी ऐसे संबंधों की "अभ्यस्त" थी। दूसरी ओर, एक युवक गुहार लगाता फिरेगा कि नारायण दत्त तिवारी की डीएनए जांच कराओ, अदालत आदेश देगी कि नारायण दत्त तिवारी के डीएनए की जांच कराओ, पता लगाओ कि वह युवक तिवारी का बेटा है या नहीं! लेकिन सारे गुहार जाए भाड़ में... अदालत का आदेश ठेंगे पर...!!! कौन हिसाब मांगेगा इस "मर्द" से और "बाबा" से?

और भंवरी... महज इसलिए नफरत के काबिल है क्योंकि वह स्त्री है और इससे भी ज्यादा कि खानाबदोशी की नियति को कबूल करने के बजाय उसने "इंसानों" की तरह कुछ सपने देख लिए थे...!!!

बिहार के पूर्णिया जिले में भाजपा के एक विधायक राजकिशोर केसरी की हत्या करने वाली रूपम पाठक और राजस्थान की इस भंवरी देवी के मामले में क्या फर्क है, सिवाय इसके कि रूपम पाठक ने मार डाला और भंवरी देवी मारी गई...!!!

अब मर चुकी भंवरी के लिए अदालत के पंच-परमेश्वर एक बार फिर क्या फैसला सुनाएंगे, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मामले की जांच के कर्णधारों ने पहले ही भंवरी को ब्लैकमेलर और खलनायिका घोषित कर दिया है। यानी कहानी फिर वहीं की वहीं... एक भंवरी झूठी, एक भंवरी ब्लैकमेलर...! कहानी के शेष पात्र पवित्र देव.... भूदेव...!!!

खामोश...!!! अदालत जारी है...!!!

1 comment:

kriti said...

भंवरी किस भंवर में फंसी कह नहीं सकते। परन्तु देश के न्याय विधान ने बहुत पहले से ही यह घोषित कर रखा है कि ‘स्त्रीयमस्वतन्त्रतानार्हत’ यानी स्त्रियां स्वतन्त्रता की अधिकारी नहीं हैं। या फिर स्वतन्त्र स्त्री वेश्या होती है। (जैसे कि वेश्या स्त्री नहीं होती)
क्या कहें औरतों के बारे में इस तथाकथित लोकतन्त्र के सर्वोच्च निकायों की सोच के बारे में। हम तो रोज रोज उस सोच, उस निगाह के शिकार होते हैं। शायद आप महसूस कर पाएं कि कैसा लगता होगा जब सड़क पर मोटरसाइकिल चलाते वक्त या स्कूटर चलाती लड़की को ‘मर्द’ सिर्फ इस लिए धक्का देकर चले जाते हैं कि तुम्हारी हिम्मत कैसे हुयी हमारे बराबर सड़क पर उतरने की। या रिजर्वेशन के लिए औरतों के लिए लगी अलग लाइन पर फब्ती कसते ‘मर्दो’ के व्यंग्यबाण को सुन कर हम कैसा महसूस करते होंगे। कहने का मतलब यह है कि हमारे लिए यह कोई नयी बात नहीं है कि यहां की अदालतें और सर्वोच्च निकाय औरतों के प्रति बेहद असंवेदनशील, मर्दवादी एवं सामन्ती हैं। एक भंवरी के अपराधी बाइज्जत बरी कर दिये गए तो दूसरी भंवरी कत्ल कर दी गयी। दोनो के अपराधियों के लिए विजय जुलूस निकाला गया।
मुझे यहां की अदालतों और सड़क पर औरत को धक्का देते और रिजरर्वेशन की लाइन में औरतों पर फब्तियां कसते ‘मर्दों’ की सोच मे कोई खास फर्क नजर नहीं आता। हां यह अलग बात है कि इसके बावजूद सड़कों पर मोटरसाइकिल पर सवारी करती औरतों और लड़कियों की संख्या बढ़ती जा रही है..... और साथ ही बढ़ती जा रही है हमारे अन्दर परवाज भरने की हसरत भी.....ये अदालतें हमें खामोश नहीं कर सकतीं।
कृति
13.5.12
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